इस्लाम में सबसे पहले मुसलमान होने वाले लोग
अरब के लोग बेइन्तिहा जाहिल, नादान और खुदा के दीन से बेखबर हो गये थे और शिर्क व कुफ़ में ऐसे फँसे थे कि उसकी बुराई वह सुन भी नहीं सकते थे।
सच्चाई की यह आवाज सबसे पहले जिसके कानों मे पड़ी वह हज़रत मुहम्मद की बीवी ख़दीजा थीं। रसूल (सल्ल०) ने जब उनके सामने अल्लाह तआला की तअलीम की पेश की तो वह सुनने के साथ मुसलमान हो गईं।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के मर्द साथियों में अबूबक्र नाम के क़ुरैश के एक मशहूर सौदागर थे। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने जब उनको अल्लाह का पयाम (सन्देश) सुनाया तो वह भी उसी वक्त कलिमा पढ़कर मुसलमान हो गये और उस वक्त से बराबर आप के हर काम में आपके साथ साथ रहने लगे।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के प्यारे चाचा अबू तालिब का एक कम उम्र का बेटा था जिसका नाम अली था। यह हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की गोद में पले थे और आप ही के साथ साथ रहते थे। वह बचपन ही से मुसलमान रहे।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के चहेते खादिम (सेवक) का नाम जैद बिन हारिसः था उन्होंने भी इस्लाम का कलिमा पढ़ लिया और मुसलमान हो गये।
इसके बाद हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने और हज़रत अबूबक्र ने मिलकर चुपके-चुपके क़ुरैश के ऐसे लोगों को जो नेक तबियत और समझ के अच्छे थे इस्लाम की बातें समझानी शुरु कीं।
बड़े-बड़े नामी लोगों में से पाँच आदमी हज़रत अबूबक्र के समझाने से मुसलमान हुए उनके नाम यह हैं:
हज॒रत उस्मान बिन अफ्फान (रज़ि०), हजरत जुबैर (रजि०), हज़रत अब्दुर रहमान बिन औफ (रज़ि०), हज़रत सअद बिन अबी वक्कास (रजि०), और हज़रत तल्हा (रजि०)।
गुलामों का मुसलमान होना
फिर यह बात चुपके-चुपके और लोगों के कानों तक पहुँची और मक्के में मुसलमान दिन-ब-दिन बढ़ने लगे। उनमे कुछ गुलाम (दास) भी थे जिनके नाम यह हैं:
हजरत बिलाल (रजि०) हज़रत अम्मार बिन यासिर, हज़रत खब्बाब बिन अरत और हजरत सुहैब (रजि०)।
कुरैश के कुछ नेक मिजाज (सज्जन) लोग भी ईमान लाए। जैसे हज़रत अर्कम (रजि०), सईद बिन जैद, अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद (रजि०), उस्मान बिन मज़उन (रजि०) और हज़रत उबैदा (रजि०)।
मक्का के सरदारों का इस्लाम का दुश्मन होना
अब धीरे धीरे यह असर मक्का के बाहर फैलने लगा और क़ुरैश के सरदारों को इस नई तालीम का पता लगने लगा।
एक तो जिहालत (अज्ञानता) और दूसरी बाप दादा के धर्म से प्यार, ये दोनों चीज़ें ऐसी थीं कि क़ुरैश के सरदारों को इस नए मज़हब पर बड़ा गुस्सा आया।
जो लोग मुसलमान हो जाते वो पहाड़ों के दर्रों और गुफाओं में जाकर नमाज़ पढ़ते थे और अल्लाह का नाम लेते थे।
एक बार खुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपने चचेरे भाई हजरत अली को साथ किसी दर्रे मे नमाज़ पढ़ रहे थे कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के चाचा अबू तालिब कहीं से आ गये। उनको यह नई चीज़ अजीब लगी।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने कहा यह हमारे दादा इब्राहीम (अलै०) का दीन (धर्म) है| अबू तालिब ने कहा तुम खुशी से इस दीन पर रहो, मेरे होते हुए तुम्हारा कोई कुछ नहीं कर सकता।
ख़ामोशी से लोगो का मुसलमान होना
तीन साल तक हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) यूँ ही छिप-छिप कर और चुपके-चुपके बुतों के खिलाफ वअज़ (भाषण) करते रहे और लोगों को सही दीन (धर्म) का सबक (पाठ) पढ़ाते रहे ।
जो लोग नेक और समझदार होते वह मान जाते और जो नासमझ और हटठधर्मी होते वह न मानते बल्कि उलटे दुश्मन हो जाते।
इस्लाम का पहला मदरसा
उस जमाने में काबा के पास एक गली थी जिसमें एक सच्चे और जान निछावर करने वाले मुसलमान हज़रत अर्कम (रज़ि०) का घर था। यह घर इस्लाम का पहला मदरसा था।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ज्यादातर यहाँ रहते थे और मुसलमानों से मिलते थे और उनको खुदा की याद और अच्छी-अच्छी बातें सुनाते और उनके ईमान को मज़बूत बनाते।
जो लोग अल्लाह के भेजे हुए इस दीन (धर्म ) को पसन्द करते वह यहीं आकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से मिलते और मुसलमान हो जाते थे।