हज़रत मुहम्मद की लोगो को इस्लाम की तरफ सबसे पहली दावत

इस्लाम की पहली आम मुनादी (सार्वजनिक घोषणा)

हज़रत मुहम्मद को अल्लाह ने अपना आखिरी रसूल बनाये जाने के तीन साल बाद अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को आदेश दिया कि अब खुले आम अल्लाह का नाम बुलन्द करो और निडर होकर बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) की मुख़ालिफत (विरोध) करो, और हमारे बन्दों को नेक बातों की नसीहत (उपदेश) करो |

इत्तिफाक (संयोग) की बात देखो कि उस वक्त जिसने सबसे ज्यादा आपका साथ दिया और आप की मदद की, वह आप (सल्ल०) के चाचा अबू तालिब थे वह आप (सल्ल०) को बहुत प्यार करते थे।

हज़रत मुहम्मद के सबसे बड़े दुश्मन 

इसी तरह जिसने सबसे ज़्यादा आप की मुखालिफत (विरोध) करी और हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की दुश्मनी में कोई कसर न उठा रखी वह भी आप ही के एक चाचा थे जिनका नाम अबू लहब था। अबू लहब के अलावा हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के दीन का सबसे बड़ा दुश्मन अबू जहल था।

अल्लाह के बारे में लोगो की ग़लत सोच 

क़ुरैश के सरदारों का कहना यह था कि अगर अल्लाह को अपना पैग़म्बर (सन्देशवाहक) बना कर किसी को भेजना ही था तो मक्का के किसी दौलतमन्द रईस को बना कर भेजता।

उनकी समझ मे यह बात नहीं आती थी कि अल्लाह के दरबार में सरदारी और दौलतमन्दी की नहीं बल्कि नेकी और अच्छाई की अहमियत है।

अल्लाह  ने दुनिया बनाने से पहले फैसला कर लिया था कि कुरैश के घराने में अब्दुल्लाह के यतीम (अनाथ) बेटे मुहम्मद (सल्ल०) को अपना आखिरी रसूल बना कर भेजेगा तो उसने भेजा और अब वह आया।

हज़रत मुहम्मद की इस्लाम की तरफ पहली आवाज़

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को जब अल्लाह के दीन का खुले आम ऐलान करने का आदेश हुआ तो आप (सल्ल०) ने मक्का की एक पहाड़ी पर, जिस का नाम “सफा” था खड़े होकर कुरैश को आवाज़ दी। अरबों के रिवाज के हिसाब से इस आवाज़ को सुनकर कबीले के सारे आदमियों का इकट्ठा होना जरूरी था। इसलिए मक्का के बड़े-बड़े सरदार उस पहाड़ी के नीचे आकर इकट्ठा हुए।

आप (सल्ल०) ने उनसे पूछा अगर मै तुमसे यह कहूँ कि इस पहाड़ के पीछे तुम्हारे दुश्मनों की एक फौज आ रही है तो क्या तुमको इसका यकीन आएगा?

सबने कहा – हाँ , बेशक, क्योंकि हमने हमेशा आपको सच बोलते देखा।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने कहा तो मै यह कहता हूँ कि अगर तुमने अल्लाह के पैगाम (आदेश) को नहीं माना तो तुम्हारी कौम पर एक बहुत बड़ी मुसीबत आएगी।

यह सुनकर हज़रत मुहम्मद के चाचा अबू लहब ने कहा क्या तुमने यही सुनाने के लिए हमें यहाँ बुलाया था? यह कहकर उठा और चला गया। कुरैश के दूसरे सरदार भी नाराज़ होकर चले गये।

सार्वजनिक रुप से इस्लाम को फैलाने की कोशिश

अल्लाह के आखिरी रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने उन सरदारों की नाराज़गी की परवाह न की, और बुतपरस्तीं की बुराई खुल्लम-खुल्ला लोगो को बताते रहे और अल्लाह के एक होने की, केवल उसी की  इबादत(पूजा), अच्छे अख़्लाक (व्यवहार) और कियामत (महाप्रलय) की नसीहत करते रहे।

लोगो का हज़रत मुहम्मद को बहुत तकलीफ देना 

जिन लोगो के दिल अच्छे थे वह हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की बात मान लेते थे, लेकिन जो दिल के नेक न थे वह शरारत पर उतर आये और आप (सल्ल०) को तरह-तरह से सताने लगे।

लोग रास्ते में काँट डाल देते, जब आप (सल्ल०) नमाज पढ़ने खड़े होते तो छेड़ते, काबे का तवाफ (कअबे के चारों तरफ चक्कर लगाना) करने जाते तो हँसी उड़ाते।

लोग आप को को शायर, जादूगर, पागल आदि बताते और जो नेक आदमी आता तो उसको पहले ही जाकर कह आते कि हमारे यहाँ एक आदमी बाप दादा के दीन (धर्म) से फिर गया है, उसके पास न जाना और उसकी बात बिलकुल न सुनना।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) उनकी सभी सख्तियाँ और बुरा सुलूक झेलते थे और अपना काम किये जाते थे।

काफिरों का हज़रत मुहम्मद को धमकियां देना

क़ुरैश ने कि यह किसी तरह नहीं रुकता तो एक दिन इकटठे होकर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के चाचा अबू तालिब के पास गए और कहा  – तुम्हारा भतीजा हमारे बुतों को बुरा भला कहता है, हमारे बाप दादा को गुमराह (पथभ्रष्ट) बताता है और हमको नादान और नासमझ कहता है। अब या तो बीच में से हट जाओ या तुम भी मैदान में आ जाओ कि हम दोनों में से एक का फैसला हो जाये।

अबू तालिब ने अब देखा कि मुश्किल वक़्त है। उन्होंने हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को बुलाकर कहा – मुझ बूढ़े पर इतना बोझ न डालो कि उठा न सकूँ। देखने में असल में मुहम्मद (सल्ल०) का सहारा यही तो चाचा थे।

उनकी यह बात सुनकर आप (सल्ल०) की आँखों में आँसू भर आए, फिर कहा – चचा जान अल्लाह की कसम, अगर यह लोग मेरे एक हाथ पर सूरज और दूसरे हाथ पर चाँद रख दें तब भी मैं अपने काम से न रुकूँगा

हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की मजबूती और पक्का इरादा देख कर और आप की इस ज़बरदस्त बात को सुनकर, अबू तालिब पर बड़ा असर हुआ और उन्होंने हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) से कहा भतीजे जाओ अपना काम किए जाओ यह तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकते।

चाचा का यह जवाब सुनकर दिल में ढारस बँधी और आपने अपना काम तेजी से करना शुरु किया। ज़्यादातर कबीले के इक्का-दुक्का आदमी मुसलमान होने लगे थे।

काफिरों का हज़रत मुहम्मद को लालच देना 

क़ुरैश के सरदारों ने देखा कि धमकी से काम न चला, अब ज़रा फुसला कर काम चलाएँ | सबने सलाह करके उत्बा नाम के एक कुरैशी सरदार को समझा बुझा कर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के पास भेजा।

उसने आप के पास पहुँच कर यह कहा – ऐ मुहम्मद! कौम में फूट डालने से क्या फायदा? अगर तुम मक्का की सरदारी चाहते हो तो हम तुम्हें सरदार बना दें, अगर किसी बड़े घर में शादी चाहते हो तो यह भी हो सकता है, अगर दौलत चाहते हो तो हम उसके लिए राजी हैं, मगर इस काम से रुक जाओ।

उत्बा ने सोचा था कि हम जो चाल चल रहें हैं उसकी कामयाबी में शक ही नहीं। मुहम्मद (सल्ल०) इन तीनों बातों में से किसी एक के लालच में आकर ज़रूर ही हम से समझौता कर लेंगे।

लेकिन हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की जबान से उसने वह जवाब सुना जिसकी जरा भी उम्मीद उसकी न थी। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने क़ुरान की कुछ आयतें सुनाईं। उन आयतों का सुनना था कि उत्बा का दिल काँप उठा।

हज़रत मुहम्मद अल्लाह के सबसे बड़े पैग़म्बर हैं

उत्बा जब वापस आया तो क़ुरैश ने देखा कि उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ है। उत्बा ने कहा – भाइयों! मुहम्मद (सल्ल०) जो कलाम (वचन) पढ़ते हैं वह न शायरी है और न जादूगरी है। मेरी राय यह है कि तुम उनको उनकी हालत पर छोड़ दो। अगर वह कामयाब होकर अरब पर छा गये तो यह हमारी ही इज्जत है वर्ना अरब. इनका खुद खात्मा कर देंगें।

लेकिन क़ुरैश ने उनकी बात न मानी और अपनी हठधर्मी पर अड़े रहे।

अब हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) का काम यह था कि एक-एक आदमी के पास जाते और उसको समझाते – कोई मान लेता, कोई चुप रहता, कोई झिड़क देता। इस हालत में जो लोग हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाये और मुसलमान हुए उनकी बड़ा रुतबा और हैसियत है और उनमें से कुछ लोगों के मुसलमान होने का किस्सा बड़ा दिलचस्प है। 

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