हज़रत मुहम्मद से पहले अरब की हालत
अरब लोग बड़े लड़ाके थे। बात-बात में आपस मे लड़ते झगड़ते थे। अगर कहीं किसी तरफ से कोई आदमी मारा जाता तो जब तक उसका बदला नहीं ले लेते थे चैन से नहीं बैठते थे।
एक बार अरब के दो क़बीलों “बक्र” और “तग्लिब” में एक घुड़दौड़ के मौके पर लड़ाई हुई तो वह लड़ाई पूरे चालीस साल तक चली।
इसी तरह की एक लड़ाई का नाम “फिज़ार” है। यह लड़ाई “क़ुरैश” और “क़ैस” के कबीलों मे हुई थी।
कुरैश के सभी खानदान इस कौमी लड़ाई में शामिल हुए थे। हर खानदान की टुकड़ी अलग-अलग थी।
हाशिम के खानदान की टुकड़ी अब्दुल मुत्तलिब के एक बेटे जुबैर के हाथ में थी । इस लड़ाई में हज़रत मुहम्मद भी मौजूद थे।
मुहम्मद (सल्ल०) बड़े रहमदिल थे, लड़ाई झगड़े को पसन्द नहीं करते थे। इसलिए आप ने कभी किसी पर हाथ नहीं उठाया।
मुहम्मद से पहले बच्चों और ग़रीबों पर ज़ुल्म
इन लड़ाई की वजह से देश में बड़ी बेचैनी थी, किसी को चैन से बैठना नसीब न होता था। न किसी को अपनी और अपने रिश्तेदारों की भलाई नज़र आती थी।
इन लड़ाइयों में लोग बहुत मारे जाते थे। इसलिए ख़ानदानों में बिना बाप के यतीम बच्चे बहुत थे और उनको कोई पूछने वाला न था। ज़ालिम लोग उनको सताते थे और ज़बरदस्ती उनका माल हड़प कर जाते थे।
खानदान में जो कमजोर होता उसका कहीं ठिकाना न था। गरीबों पर हर तरह का जुल्म होता था।
यह हालत देख देख कर आप (सल्ल०) का दिल दुखता था और सोचते थे कि इस ज़ुल्म और अत्याचार को कैसे रोकें, कि सब लोग खुशी-खुशी अमन व सुरक्षा के साथ रहें।
मज़लूमो की मदद का समझौता
अरब के कुछ नेक लोगों को पहले भी यह ख्याल हुआ था कि इसके लिए कुछ कबीले मिलकर अहद (प्रतिज्ञा) करें कि वह सब मिल कर मजलूमों (जिन पर अत्याचार किया गया हो) की मदद किया करेंगे।
इस प्रस्ताव को जो सबसे पहले सोचने वाले थे उनके नाम में इत्तिफाक़ से फज्ल का लफ्ज (शब्द) था । जिसका अर्थ मेहरबानी के हैं।
इसलिए उनके इस आपस के अहद (संकल्प या प्रतिज्ञा) का नाम “फज्ल वालों का कौल व करार” रखा गया और उसको अरबी में हिल्फुल फुजूल कहते हैं।
फिजार की लड़ाई जब हो चुकी तो आपके चचा जुबैर बिन अब्दुल मुत्तलिब ने यह प्रस्ताव पेश किया, कि उस “प्रस्ताव व निर्णय” को जिसे लोगों ने भुला दिया था दुबारा जिन्दा किया जाए।
इसके लिए हाशिम, जोहरा और तमीम के खानदान मक्का के एक नेक सरदार के घर में जिनका नाम अब्दुल्लाह बिन जुदआन था जमा हुए और सबने मिलकर अहद (प्रतिज्ञा) किया कि हममें से हर आदमी मजलूम की मदद करेगा, और अब मक्का में कोई ज़ालिम रहने न पाएगा।
इस समझौते में अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) भी शामिल थे और बाद में कहा करते थें कि “मक्का” मे आज भी इस समझौते पर अमल करने को तैयार हूँ।